भारत के एक बृहत ग्रन्थ का नाम ‘महाभारत’ है। कहा जाता है कि विश्व-साहित्य-भण्डार के पद्यबद्ध ग्रन्थों में यह सबसे विशेष स्थूलकाय है। यह केवल भारत ही नहीं, वरंच सम्पूर्ण विश्व में सुविख्यात है।
यह ग्रन्थ अठारह भागों में विभक्त है। इसके प्रत्येक भाग को ‘पर्व’ कहते हैं। इन अठारह पर्वों में से एक का नाम ‘भीष्मपर्व’ है। इसी भीष्मपर्व के एक छोटे-से भाग का नाम ‘श्रीमद्भगवद-गीता’ है। श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ ‘भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत’ है। इसलिए इसकी पद्यात्मक भाषा में तार (टेलीग्राम) द्वारा भेजे गए सन्देश की-सी संक्षिप्तता है। इसमें केवल 700 श्लोक हैं तथा सब मिलकर 9,456 शब्द हैं।
नौ हजार चार सौ छप्पन पद्यबद्ध शब्दों में उपनिषदों का सारांश आ गया है। इसीलिए इस पुस्तिका की बड़ी महत्ता है। यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की अध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है।
भारत आदिकाल से ही अध्यात्म-ज्ञान एवं योगविद्या का देश रहा है। इस विद्या के कोई गुरु कहीं बाहर से आकर यहाँ वालों को अध्यात्म-ज्ञान एवं योगविद्या की शिक्षा-दीक्षा दे गए हों, ऐसा एक भी उदाहरण भारत के हजारों साल लम्बे इतिहास में नहीं मिलता। उपर्युक्त विद्याओं के गुरु समय-समय पर इसी देश में उत्पन्न होते रहे हैं।
पहले की बात तो जाने दीजिए, हजार साल की परतंत्रता से दीनापन्न भारत में भी इन विद्याओं के जानकार पूर्ववत् होते रहे हैं।
भारत के स्वतंत्र होने के कुछ ही साल पूर्व श्रीपाल ब्रन्टन नाम के प्रतिष्ठित अँगरेज महाशय योग-विद्याओं के जानकारों की खोज में यहाँ आये और कुछ ही महीने ठहरकर वे जो कुछ जान पाये, उसी से सन्तुष्ट होकर अपने देश को लौट गये।
इस देश को सर्वाधिक गौरव उपर्युक्त विद्याओं पर है और इन विद्याओं को श्रीमद्भगवद्गीता पर गौरव है।
इसलिए भारत के बड़े-बड़े साधक-आचार्य श्रीमद्भगवद्गीता का सहारा लेकर ज्ञान-प्रचार-द्वारा भारत एवं विश्व का कल्याण करते रहे हैं। परिणामस्वरूप भारत-वन्द्य यह पुस्तिका अब विश्ववन्द्या हो चुकी है। विश्व की सभी समुन्नत भाषाओं में आये दिन इसके अनुवाद निकलते ही रहते हैं। अतएव जगद्गुरु भारत के प्रत्येक नागरिक का यह नैतिक उत्तरायित्व है कि वह इस ग्रन्थ का सही तात्पर्य स्वयं समझे और अन्यों को समझावे।
इस उत्तरदायित्व के निवाहने में तनिक भी प्रमाद, असावधानी या भ्रम न केवल भारत, बल्कि विश्व की आध्यात्मिक उन्नति के लिए घातक है।
अब प्रश्न यह है कि गीता का सही तात्पर्य क्या है? ऐहिक एवं पारमार्थिक कल्याण साथ-साथ करते हुए मनुष्य कैसे समता प्राप्त करे और किस तरह कर्म करता हुआ समाधिस्थ हो स्थितप्रज्ञता तक पहुँच सके, इसी के साधन की पूर्णता के लिए योग का अभ्यास अत्यावश्यक है। यहाँ ‘योग’ शब्द की सफाई में कुछ कह देना आवश्यक है। गीता के अठारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय के साथ ‘योग’ शब्द लगा हुआ है; जैसे-अर्जुन-विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग इत्यादि। इससे गीता के पाठकों को ज्ञात होता है कि इसमें केवल योग-ही-योग है।
स्मरण रखने की बात यह है कि गीता में केवल योग की ही बात नहीं है, बल्कि कैसे बैठना चाहिए, कितना खाना चाहिए और कितना सोना चाहिए आदि बातें दे दी गई हैं।
यहाँ निवेदन यह है कि गीता में ‘योग’ शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है।
पहले तो ‘योग’ शब्द सुनते ही ‘पातञ्जलयोग-दर्शन’ के योग का स्वरूप विचार में आने लगता है। चित्तवृत्ति के निरोध को महर्षि पतञ्जलि ‘योग’ कहते हैं। चित्तवृति-निरोध के अर्थ में ‘योग’ शब्द गीता में आया है, मगर उसके और दूसरे-दूसरे अर्थ भी हैं; जैसे-अर्जुन-विषादयोग।
यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ ‘युक्त होना’ है। अर्जुन विषाद-युक्त हुआ, इसी का वर्णन प्रथम अध्याय में है, इसीलिए उस अध्याय का नाम ‘विषादयोग’ हुआ। जिस विषय का वर्णन करके श्रोता को उससे युक्त किया गया, उसको तत्संबंधी योग कहकर घोषित किया गया।
अध्याय 2 के श्लोक 48 में कहा गया है-‘समत्वं योग उच्यते’ -अर्थात् समता का ही नाम ‘योग है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ समता है।
पुनः उसी अध्याय के श्लोक 50 में कहा गया है-‘योगः कर्मसु कौशलम्’-अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं। यहाँ ‘योग’ शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न, एक तीसरे ही इर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ‘योग’ शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए।
गीता स्थितप्रज्ञता को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बतलाती है।
स्थितप्रज्ञता, बिना समाधि के सम्भव नहीं है। इसीलिए गीता के सभी साधनों के लक्ष्य को समाधि कहना अयुक्त नहीं है।
इन साधनों में समत्व-प्राप्ति को बहुत ही आवश्यक बतलाया गया है। समत्व-बुद्धि की तुलना में केवल कर्म बहुत तुच्छ है। (गीता 2-49) इसलिए समतायुक्त होकर कर्म करने को कर्मयोग कहा गया है। यही ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ है। अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं। कर्म करने का कौशल यह है के कर्म तो किया जाय; परन्तु उसका बधन न लगने पावे। यह समता पर निर्भर करता है।
गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्म बंधन रखती है।
समत्व-योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन, कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह, कर्तव्य कर्मों के करने का उपदेश गीता देती है।
समत्व-प्राप्त स्थितप्रज्ञ पुरूष कर्म करने में कुशल, सांसारिक कर्मों में फल-आस-भाव से असंग रहता हुआ, कर्म-बंधन रहित होकर उन कर्मों को जीवन-भर करे और इस तरह जीवन्मुक्त बन जाय-यही ‘कर्मयोग गीता सीखलाती है।
गीता-ज्ञानानुकूल कर्म-योगी के लिए समत्व और स्थित-प्रज्ञता अत्यन्त आवश्यक बतलाए गए हैं। ये दोनों समाधि साधन में ही प्राप्त होते हैं। (गीता 2-53 से) यह विदित होता है तथा गीता अध्याय 2, श्लोक 54 में तो समाधिस्थ और स्थितप्रज्ञ का कथन निर्भेद भाव में किया गया हैं
पहले ही कहा जा चुका है कि गीता में बतलाए गए तमाम साधनों का अन्तिम लक्ष्य समाधि है।
समाधि-साधन के लिए जिन योगों की आवश्यकता है, उन सबका समावेश गीता में है। गीताशास्त्र के ज्ञानयोग, ध्यानयोग, प्राणायामयोग, जपयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि सभी योगों की भरपूर उपादेयता है। सब एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस तरह सम्बद्ध हैं जैसे माला की मणिकाएँ।
अब अगर कोई कहे कि अमुक योग के अभ्यास करने का युग नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के विरुद्ध है।
अन्य कोई कहे तो कहे, मगर कहनेवाले यदि भारत के उत्तम पुरुषों में से कोई हों और भारत के अध्यात्म-जगत की सर्वोत्तम उपाधि से विभूषित हों यानी ‘सन्त’ कहलाते हों, तो स्थिति और गम्भीर हो जाती है। ये सन्त यदि कहें कि ‘मेरे जीवन में गीता ने जो-जो स्थान पाया है, उसका मैं शब्दों मं वर्णन नहीं कर सकता हूँ। गीता का मुझ पर अनन्त उपकार है।------------ मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है, उससे कहीं अधिक मेरा हृदय व बुद्धि दोनों गीता से पोषित हुए हैं। ------------- मैं प्रायः गीता के ही वातावरण में रहता हूँ, गीता यानी मेरा प्राण तत्त्व।’ और पिफ़र वे ही अगर कहें कि ‘अब ध्यानयोग-अभ्यास करने का युग नहीं है।’ तो स्थिति गम्भीरतम हो जाती है। और यही विदित होता है कि देश का अमंगलकाल ही चला आया है।
किसी को नहीं चाहिए कि कर्मयोगी बनते हुए कर्मयोग का तो वे गुणगान करें और ध्यानयोग को आधुनिक काल के लिए अव्यावहारिक बताकर जन-साधारण को उससे विमुख करें।
गीता ज्ञान जन-साधारण के लिए ही है। साधारणतया यह मान लिया गया है कि गीता साधु-संन्यासियों के व्यवहार की ची हैं; किन्तु स्वयं गीता सबको गीता-ज्ञान सबको गीता-ज्ञान का अधिकारी मानती है। यहाँ सवर्ण, अवर्ण, स्त्री, शुद्र, पापी और दुराचारी; सभी के लिए गीता-गंगा का जल-रूपी उपदेश समान रूप से सुलभ है। (गीता, अध्याय 6,श्लोक 30 से 32)
यहाँ उपदेश और उपदेष्टा (गुरु) के लिए कुछ कहना आवश्यक प्रतीत होता है; क्योंकि कुछ ऐेसे भी सज्जन हैं, जिनका मत है कि अध्यात्म-साधन के लिए गुरु की कोई आवश्यकता नहीं, परमात्मा ही एकमात्र गुरु हैं।
उनसे मेरा निवेदन है कि ऐसे विचार गीता एवं भारतीय अध्यात्म-विद्या की शिक्षा-परम्परा के सर्वथा विरुद्ध हैं। गीता के चौथे अध्याय में लिखा है-
‘तद्धिद्धि प्रणिपासेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति से ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।34।।’
तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दण्डवत्
प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न-द्वारा उस ज्ञान को जान; वे मर्म को जाननेवाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
अध्याय 13 में है-
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिप्रहः ।।7।।
अमानित्व (मान का अभाव), अदंभित्व (दंभ का अभाव), अहिंसा, क्षमा, सरलता, आचार्य (गुरु) की सेवा, शुद्धता, स्थिरता, आत्मसंयम--------------------- यह सब ज्ञान कहलाता है। इससे जो उलटा है, वह अज्ञान है।
‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्चते ।।’
(गीता, अध्याय 54)
देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी की पूजा, पवित्रता, सरलता,
ब्रह्मचर्य और अहिंसा-यह शारीरिक तप कहलाता है।
हमारे यहाँ उपनिषदानि ग्रन्थों से लेकर भगवान बुद्ध, भगवान शंकराचार्य, महायोगी श्रीगोरखदासजी, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी इत्यादि अर्वाचीन साधु पुरुषों तक गुरु और उनके महत्त्व की मान्यता अव्याहत रूप से चली आ रही है। यहाँ तद्विषयक प्रमाणार्थ कुछ उपनिषद् एवं सन्तवाणियों को उद्धृत किया जाता है।
‘तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रिमं ब्रह्मनिष्ठम्।’
(मुण्डकोपनिषद् 1-2-12)
जिज्ञासु को परमात्मा का वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए हाथ में समिघा लेकर श्रद्धा और विनय-भाव के सहित ऐसे सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए, जो वेदों के रहस्य को भली भाँति जानते हों और परब्रह्म में स्थित हों।
----------------------- इति शुश्रुम श्रीराणम् येनरतद्विचचक्षिरे ।’
(ईशोपनिषद्)
इस प्रकार हमने उन परम ज्ञानी महापुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें यह विषय पृथक-पृथक रूप से व्याख्या करके भली भाँति समझाया था।
त्रिपाद्विभूति महानारायणोपनिषद् में-
‘शान्तो दान्तोऽतिविरक्तः सुशुद्धो गुरुभक्तस्तपोनिष्ठः शिष्यों ब्रह्मनिष्ठं गुरुमासाद्य प्रदक्षिणपूर्वकं दण्डवत्प्रणम्य प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयेनोपसड़् गम्भ भगवन् गुरो मे परमतत्त्वं विदिच्यवक्तव्यमिति ।’
शान्त, दमनशील, अति विरक्त, अति शुद्ध, गुरुभक्त, तपोनिष्ठ शिष्य ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा और दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर नम्रता के साथ कहे-हे भगवन् मेरे गुरु! परम तत्त्व-रहस्य विवेचना के साथ मुझे बतलाइए।
महोपनिषद् में-
दुर्लभो विषयत्मागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां दिना ।।77।।
सद्गुरु की दया के बिना विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्वदर्शन दुर्लभ है और सहजावस्था दुर्लभ है।
योगशिखोपनिषद् के पाँचवें अध्याय में-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णुर्गुरुर्देवः सदाविशः।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।56।।
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परेमश्वरम् ।
पूजयेस्परया भवत्या तस्म ज्ञानफर्ल भवेत् ।।57।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैशस्तया गुरुः।
पूजनीयो महाभवत्या न भेदो विद्यतेऽनयोः।।58।।
गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है। दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित प्रत्यक्ष परमेश्वर की, भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह (शिष्य) ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं; इन दोनों में भेद नहीं है, इस भावना से पूजा करे।
कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढम् ।
अभ्यासवासनाशवत्या तरन्ति भवसागरम् ।।76।।
(योगशिखोपनिषद्, अध्याय3)
गुरु के कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास (करने की) वासना की शक्ति से भवाागर को लोग पार कहते है।
देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः ।
देहस्थाः सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ।।8।।
इस देह में सब विद्या, सब देवता और सब तीर्थ, विराजमान हैं। केवल गुरु के उपदेश से ही देहस्थित से सब विद्या, देवता और तीर्थ जाने जाते हैं।
हम पहले ही कह आये हैं कि गीता में उपनिषदों का सार है। एवं इसकी भाषा में तार-सन्देश की-सी संक्षिप्तता है। इसलिए गीता गुरु-सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों को एक श्लोक मं देती है।
तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
(गीता 4-34)
इसे तू तत्त्व के जानेवाले ज्ञानियों की सेवा करके और नम्रतापूर्वक विवेक-सहित बारम्बार प्रश्न करके जानना। वे तेरी जिज्ञासा तृप्त करेंगे।
तथा गुरु और ज्ञानी की पूजा करने की गीता शारीरिक तप की संज्ञा देती है। (गीता 27-14)
महाभारत शान्तिपर्व उत्तराद्ध, मोक्षधर्म, अध्याय 114 में लिखा है-‘भीष्मजी बोले कि ईश्वर में चित्त लगाकर गुरु की पूजा और आचार्यों का सदैव पूजन करे। गुरु आदि से शास्त्रें को सुनना, तदन्तर शुद्धब्रह्म से सम्बन्ध रखनेवाला कल्याण कहा जाता है।’
सन्तों ने भी इन्हीं विचारों को अपने-अपने स्वयं-सिद्ध शब्दों में दुहराए हैं।
यम्हा धम्भं विजानेय्य सम्मानसम्बुद्धदेसितं ।
सक्कच्चं तं नमस्सेय्य अग्गिहुर्त्त व ब्राह्मणो ।।10।।
(धम्मपद, ब्राह्मणवग्गो-362)
मनुष्य जिससे बुद्ध का बताया हआ धर्म सीखे तो उसे उसकी परिश्रम से सेवा करनी चाहिए, जैसे ब्राह्मण यज्ञ-अग्नि की पूजा करता है।
गुरुचरणाम्बुज निर्भरभक्तः संसारादचिराद्भवमुक्तः
(भगवान शंकराचार्य)
सप्त धातु का काया प्यंजरा ता माहिं ‘जुगति’ बिन सूचा ।
सतगुरु मिलै त उबरै बाबू नहिं तौ परलै हुआ ।।
(महायोगी गोरखनाथजी)
बिन सतगुरु उपदेस, सुर न मुनि नहिं निस्तरै ।
ब्रह्मा विष्णु महेस, औ सकल जिव को गिनै ।।
गुरुदेव बिन जी की कल्पना ना मिटै, गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं ।।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासै नहीं, समुझि विचारि ले मने माहीं ।।
राह बारीक तें पाइये, जन्म अनेक की अटक खोलै ।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै, जीव और सीव तब एक तालै ।।
गुरु हैं बड़े गोविन्द तें, मन में देखु विचार ।
हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार ।।
गुरु मिलि खुले कपाट । बहुरि न आवै योनी वाट ।।
गुरु साहिब करि जानिये, रहिये सब्द समाय ।
मिलै तो दंडवत बन्दगी, पल-पल ध्यान लगाय ।।
(कबीर साहब)
गुरु की मूरति मन महि धिआनु । गुरु के सबदि मंत्र मनु मानु ।
गुरु के चरण रिवै लै धारउ । गुरु परब्रह्म सदा नमसकारउ ।।1।।
मत को भरमि भूलै संसारि । गुरु बिनु कोई न उतरसि पारि ।।
भूलै कउ गुरु मारगि पाइआ । अवरि तिआगि हरि भगती लाइआ ।।
जनम-जनम की त्रास मिटाई । गुरु पूरे की वे अन्त बड़ाई ।।2।।
गुरु प्रसादि ऊरध कमल विगास । अंधकार महि भइआ प्रगास ।।
जिनि किआ सो गुरते जानिआ । गुरु किरपा ते मुगधु मनु मानिआ ।।3।।
गुरु करता गुरु करणै जोगु । गुरु परमेसुर है भी होगु ।।
कहु नानक प्रभि इहै जनाई । बिनु गुरु मुकति न पाइअै भाई ।।4।।
(गुरु नानक)
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई । जौं बिरञ्चि सड़कर सम होई ।।
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, कि होइ विराग बिनु ।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ।।
गुरु पद पड़क सेवा, तीसरि भगति अमान ।
श्री हरि गुरुपद कमल भजहिं मन तजि अभियान ।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख निधान भगवान ।।
(गोस्वामी तुलसीदासजी)
गुरु बिनु ऐसी कौन करै ।
माला तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै ।।
भवसागर से बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै ।
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छिन में लै उधरै।।
(भक्त सूरदासजी)
सतगुरु सिकलीगर मिलै, तब छूटै पुराना दाग ।।
छूटै पुराना दाग गड़ा मन मुरचा माहीं ।
सतगुरु पूरे बिना दाग यह छूटै नाहीं ।।
झाँवाँ लेवै जोग तेग को मलै बनाई ।
जौहर देय निकार सुरत को रंद चलाई ।।
सब्द मस्कला करै ज्ञान का कुरँड लगावै ।
जोग जुगत से मलै दाग तब मन का जावै ।।
पलटू सैफ को साफ करि बाढ़ धरै वैराग ।
सतगुरु सिकलीगर मिलैं तब छूटै पुराना दाग ।।
(पलटू साहब)
गुरु बिन ज्ञान नहिं, गुरु बिन ध्यान नहिं ।
गुरु बिन आतम, विचार न लहतुहै ।।
गुरु बिन प्रेम नहिं, गुरु बिन नेम नहिं ।
गुरु बिन सीलहु, सन्तोष न रहतु है ।।
गुरु बिन प्यास नहिं, बुद्धि को प्रकास नहिं ।
भ्रमहू को नास नहिं, संसेइ रहतु है ।।
गुरु बिन बाट नहिं, कौड़ी बिन हाट नहिं ।
सुन्दर प्रगट लोक, वेद यों कहतु है ।।45।।
(पलटू साहब)
इसी आशय की उक्तियाँ और भी सन्तों की हैं, जो बहुंलता एवं पुस्तक-वृद्धि के कारण यहाँ नहीं दी जा रही हैं।
किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि जिस किसी को भी गुरु बना लिया जाय। इस मामले में अधिक सावधानी, खोज और सोच-विचार की आवश्यकता है। सन्त चरणदासजी कहते हैं-
समझ रस कोइक पावै हो ।
गुरु बिन तपन बुझै नहीं, प्यासा नर जावै हो ।।
बहुत मनुष ढूँढत पिफ़रै, अन्धरे गुरु सेवैं हो ।
उनहूँ को सूझै नहीं, औरन कहै दैवैं हो ।।2।।
अन्धरे को अन्धरा मिलै, नारी को नारी हो ।
ह्वाँ फल होयगा, समझै न अनारी हो ।।3।।
गुरु सिष दोऊ एक से, एकै व्यवहारा हो ।
गये भरोसे डूबि कै, वै नरक मँझारा हो ।।4।।
सुकदेव कहैं चरनदास सूँ, इनका मत कूरा हो ।
ज्ञान मुक्ति जब पाइये, मिलै सतगुरु पूरा हो ।।5।।
(चरणदासजी)
गुरु सिष अन्ध वधिर कर लेखा । एक न सुनइ एक नहिं देखा ।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई । सो गुरु नरक महँ परई ।।
(गोस्वामी तुलसीदास)
महात्मा गाँधीजी को उक्ति इस सम्बन्ध में इस तरह है-
श्श् हिन्दू-धर्म में गुरु-पद को जो महत्त्व दिया गया है, उसे मैं मानता हूँ। ‘गुरु बिन होइ न ज्ञान’ यह वचन बहुतांश में सच है। अक्षर ज्ञान देनेवाला शिक्षक यदि अधकचरा हो तो एक बार का काम चल सकता है, परन्तु आत्मा-दर्शन करानेवाले अधूरे शिक्षक से हरगिज काम नहीं चलाया जा सकता है। सफलता गुरु की खोज में ही है; क्योंकि गुरु शिष्य को योग्यता के अनुसार ही मिला करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक साधक को योग्यता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने का पूरा-पूरा अधिकार है। परन्तु इस प्रयत्न का फल ईश्वराधीन है।य्
(आत्मकथा-महात्मा गाँधी, भाग2, अध्याय 1, पृष्ठ 62 नौवीं बार, सन् 1648)
महाभारत , तंत्रशास्त्र एवं सन्तवाणी के निम्न उद्धरणों मं तो यह स्पष्ट ही कहा गया है कि यदि किसी ने अपनी अनभिज्ञता के कारण किसी अयोग्य गुरु को धारण कर लिया हो, तो वैसे गुरु का अविलम्ब त्याग कर दे ।
गर्वित कार्य अकार्य नहिं, जानत चलत कुपंथ ।
ऐसे गुरु कहै त्यागिये, यही कहत शुभ ग्रन्थ ।।
(महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 180, श्लोक 25)
ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्जानं परास्परम् ।
अतो यो ज्ञानदानेहि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम ।।
(बृहत्तन्त्रसार)
ज्ञान से मोक्ष होता है, इसलिए ज्ञान से बढ़कर दूसरा उपदेश नहीं है; इसलिए जो गुरु ज्ञान-दान में (अर्थात् ज्ञानोपदेश में) समर्थ (योग्य) नहीं है, ऐसे गुरु को छोड़ देना चाहिए ।
झूठै गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै सब्द का, भटकै बारम्बार ।।
(कबीर साहब)
इस विषय की विशेष जानकारी के लिए ‘सत्संग-योग’ (चारो भाग) को पढ़ें ।
विशेष रूप से याद रखने की बात यह है कि गीता परम रहस्यमयी पुस्तिका है। इसी गुप्त योग-रहस्य-निधियों पर भी प्रकाश डालने के लिए ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ में लिखा गया है। उपर्युक्त दृष्टिकोणों से गीतार्थ के भाव आवश्यकतानुकूल लिखे गये हैं।
‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ सब श्लोको के अर्थ वा उनकी टीकाओं की पुस्तिका नहीं है। गीता के सही ताप्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण चाहिए, वही इसमें दरसाया गया है ।
गीता के बारे में पफ़ैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों में से एक का भी निराकरण यदि ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ से हुआ, तो मैं अपना प्रयत्न सफल समझूँगा।
पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि शुद्धतापर्वूक तैयार करने में, शोध्यपत्र (प्रूफ) देखने तथा पुस्तक-प्रस्तुत होने के अन्यान्य कार्यो में जिन सत्संगियों ने परिश्रम किया है, वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं।
श्रीबाबू सुरेन्द नारायण सिंह, एम0 ए0, एल0 बी0, शास्त्री ने भी शोध-कर्म में यथेष्ट परिश्रम किया है, अतएव वे भी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
श्रीसन्तमत-सत्संग मन्दिर मनिहारी
सत्संग सेवक
मेँहीँ
विजया दशमी,सं0 2012 वि0